ग्लेशियर पिघलकर नदियों में जाकर गिर रहे हैं जो कि बर्फ पिघलने की प्रक्रियाओं में से एक हैं.
यह पता चला है कि अफ्रीका (Africa) और एशिया (Asia) के कुछ हिस्सों में सैकड़ों मील की दूरी पर उड़ने वाली धूल (Dust) हिमालयी क्षेत्रों में बर्फ के चक्र पर व्यापक प्रभाव छोड़ रही है. जबकि तेजी से पिघल रही हिमालयी बर्फ (Himalayan Snow) एक चिंता का विषय है.
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ग्लेशियर पिघलकर नदियों में जाकर गिर रहे हैं जो कि बर्फ पिघलने की प्रक्रियाओं में से एक हैं. शोध के मुताबिक, दक्षिण पूर्व एशिया के लगभग 700 मिलियन लोग मीठे पानी की जरूरतों के लिए हिमालय की बर्फ पर निर्भर हैं. वहीं, भारत और चीन की प्रमुख नदियां गंगा, ब्रह्मपुत्र, यंगेतेज और होंग ही जीव-जंतु और मानव जीवन, कृषि और पारिस्थितिक लिहाज से बेहद जरूरी हैं. आपको बता दें कि इन सभी नदियों का उद्गम भी हिमालय से होता है. शोधकर्ताओं ने कहा है कि इसलिए प्राकृतिक रूप से विश्लेषण करने के लिए इस तरह के अध्ययन जरूरी हो जाते हैं क्योंकि इन क्षेत्रों में बर्फ बहुत तेजी से पिघल रही है जो कि किसी बड़े खतरे का संकेत हो सकती है.
आपको बता दें कि नासा (NASA) द्वारा किए गए एक पूर्व अध्ययन में बर्फ की सतह पर जमी धूल, प्रदूषण और एरोसोल के स्तर को मापा गया था. इन धूल कणों (Dust) के परिणामस्वरूप होने वाली हिमालयों पर बर्फ पिघलने की घटना को एल्बिडो प्रभाव कहा जाता है. एल्बिडो प्रभाव में बर्फ की परतों पर कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है जो रोशनी को अवशोषित कर लेती है. यही कारण है कि लोग काले रंग की बजाय सफेद रंग की कार लेना पसंद करते हैं क्योंकि यह गर्मी को काटता है.ये भी पढ़ें – कोरोना काल में बच्चों से जुड़ी परेशानियों पर यूनिसेफ ने दिए 5 सुझाव
ठीक इसी तरह हिमालयों की शुद्ध और चमकती सफेद बर्फ पर पड़ने वाली धूप की रोशनी आकाश में दूर-दूर तक फैलती है, लेकिन बर्फ पर जमे घने प्रदूषण और धूल के कारण बर्फ पर पड़ने वाली सूर्य की रोशनी की चमक फीकी पड़ने लगती है. क्योंकि प्रदूषण, धूल और एयरोसोल्स सूर्य की रोशनी से निकलने वाली किरणों को अवशोषित कर लेते हैं. शोध के मुताबिक, शहरीकरण से हिमालय पर धूल की मात्रा दिनों-दिन बढ़ रही है. वहीं वनों की कटाई, कृषि और बड़े पैमाने पर औद्योगिक निर्माण, धूल और प्रदूषण के बड़े स्रोत हैं.